WING OF FIRE
(A P J ABDUL KALAM)
मेरा जन्म मद्रास राज्य (अब तमिलनाडु) के रामेश्वरम् कस्बे में एक मध्यम वर्गीय तमिल परिवार में हुआ था। मेरे पिता जैनुलाबदीन की कोई बहुत अच्छी औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी और न ही वे कोई बहुत धनी व्यक्ति थे। इसके बावजूद वे बुद्धिमान थे और उनमें उदारता की सच्ची भावना थी।
मेरी माँ, आशियम्मा, उनकी आदर्श जीवनसंगिनी थीं। मुझे याद नहीं है कि वे रोजाना कितने लोगों को खाना खिलाती थीं; लेकिन मैं यह पक्के तौर पर कह सकता हूँ कि हमारे सामूहिक परिवार में जितने लोग थे, उससे कहीं ज्यादा लोग हमारे यहाँ भोजन करते थे ।
मेरे माता-पिता को हमारे समाज में एक आदर्श दंपती के रूप में देखा जाता था। मेरी माँ के खानदान का बड़ा सम्मान था और उनके एक वंशज को अंग्रेजों ने 'बहादुर' की पदवी भी दे डाली थी।
मैं कई बच्चों में से एक था, लंबे-चौड़े व सुंदर माता-पिता का छोटी कद काठी का साधारण सा दिखनेवाला बच्चा। हम लोग अपने पुश्तैनी घर में रहते थे।
यह घर उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में बना था। रामेश्वरम् की मसजिदवाली गली में बना यह घर चूने पत्थर व ईंट से बना पक्का और बड़ा था। मेरे पिता आडंबरहीन व्यक्ति थे और सभी अनावश्यक एवं ऐशो-आरामवाली चीजों से दूर रहते थे।
पर घर में सभी आवश्यक चीजें समुचित मात्रा में सुलभता से उपलब्ध थीं। वास्तव में, मैं कहूँगा कि मेरा बचपन बहुत ही निश्चितता और सादेपन में बीता - भौतिक एवं भावनात्मक दोनों ही तरह से।
मैं प्रायः अपनी माँ के साथ ही रसोई में नीचे बैठकर खाना खाया करता था। वे मेरे सामने केले का पत्ता बिछातीं और फिर उसपर चावल एवं सुगंधित, स्वादिष्ट साँभर देतीं;
साथ में घर का बना अचार और नारियल की ताजा चटनी भी होती प्रतिष्ठित शिव मंदिर, जिसके कारण रामेश्वरम् प्रसिद्ध तीर्थस्थल है, का
हमारे घर से दस मिनट का पैदल रास्ता था। जिस इलाके में हम रहते थे, वह मुसलिम बहुल था। लेकिन वहाँ कुछ हिंदू परिवार भी थे, जो अपने मुसलमान: पड़ोसियों के साथ मिल-जुलकर रहते थे।
हमारे इलाके में एक बहुत ही पुरानी मसजिद थी, जहाँ शाम को नमाज के लिए मेरे पिताजी मुझे अपने साथ ले जाते थे। अरबी में जो नमाज अता की जाती थी, उसके बारे में मुझे कुछ पता तो नहीं था,
लेकिन यह पक्का विश्वास था कि ये बातें ईश्वर तक जरूर पहुँच जाती हैं। नमाज के बाद जब मेरे पिता मसजिद से बाहर आते तो विभिन्न धर्मों के लोग मसजिद के बाहर बैठे उनकी प्रतीक्षा कर रहे होते।
उनमें कई लोग पानी के कटोरे मेरे पिताजी के सामने रखते; पिताजी अपनी अँगुलियाँ उस पानी में डुबोते जाते और कुछ पढ़ते जाते। इसके बाद वह पानी बीमार लोगों के लिए घरों में ले जाया जाता।
मुझे भी याद है कि लोग ठीक होने के बाद शुक्रिया अदा करने हमारे घर आते। पिताजी हमेशा मुसकराते और शुभचिंतक एवं दयावान अल्लाह को शुक्रिया कहने को कहते।
रामेश्वरम् मंदिर के सबसे बड़े पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री मेरे पिताजी के अभिन्न मित्र थे। अपने शुरुआती बचपन की यादों में इन दो लोगों के बारे में मुझे सबसे अच्छी तरह याद है, दोनों अपनी पारंपरिक वेशभूषा में होते और आध्यात्मिक मामला पर चर्चाएँ करते रहते।
जब मैं प्रश्न पूछने लायक बड़ा हुआ तो मैंने पिताजीं नमाज की प्रासंगिकता के बारे में पूछा। पिताजी ने मुझे बताया कि नमाज में रहस्यमय कुछ भी नहीं है।
नमाज से लोगों के बीच भाईचारे की भावना संभव हो पाती है। वे कहते-'जब तुम नमाज पढ़ते हो तो तुम अपने शरीर से इतर ब्रह्मांड का एक हिस्सा बन जाते हो; जिसमें दौलत, आयु, जाति या धर्म-पंथ का कोई 'भेदभाव नहीं होता।'
मेरे पिताजी अध्यात्म की जटिल अवधारणाओं को भी तमिल में बहुत ही सरल ढंग से समझा देते थे। एक बार उन्होंने मुझसे कहा, 'खुद उनके वक्त में, खुद (उनके स्थान पर, जो वे वास्तव में हैं और जिस अवस्था में पहुँचे हैं-अच्छी या बुरी,
हर इनसान भी उसी तरह दैवी शक्ति रूपी ब्रह्मांड में उसके एक विशेष हिस्से के रूप में होता है तो हम संकटों, दुःखों या समस्याओं से क्यों घबराएँ ?
जब कें संकट या दुःख आएँ तो उनका कारण जानने की कोशिश करो। विपत्ति हमेशा • आत्मविश्लेषण के अवसर प्रदान करती है।'
आप उन लोगों को यह बात क्यों नहीं बताते जो आपके पास मदद और सलाह माँगने के लिए आते हैं ?' मैंने पिताजी से पूछा। उन्होंने अपने हाथ मेरे कंधों ." पर रखे और मेरी आँखों में देखा।
कुछ क्षण वे चुप रहे, जैसे वे मेरी समझ की क्षमता जाँच रहे हों। फिर धीमे और गहरे स्वर में उन्होंने उत्तर दिया। पिताजी के इस जवाब ने मेरे भीतर नई ऊर्जा और अपरिमित उत्साह भर दिया
'जब कभी इनसान अपने को अकेला पाता है तो उसे एक साथी की तलाश होती है, जो स्वाभाविक ही है। जब इनसान संकट में होता है तो उसे किसीकी मदद की जरूरत होती है।
जब वह अपने को किसी गतिरोध में फँसा पाता है तो उसे चाहिए होता है ऐसा साथी जो बाहर निकलने का रास्ता दिखा सके। बार-बार तड़पानेवाली हर तीव्र इच्छा एक प्यास की तरह होती है मगर हर प्यास को बुझानेवाला कोई-न-कोई मिल ही जाता है।
जो लोग अपने संकट की घड़ियों में. मेरे पास आते हैं, मैं उनके लिए अपनी प्रार्थनाओं के जरिए ईश्वरीय शक्तियों से संबंध स्थापित करने का माध्यम बन जाता हूँ। हालाँकि हर जगह, हर बार यह सही नहीं होता और न ही कभी ऐसा होना चाहिए।'
मुझे याद है, पिताजी की दिनचर्या पौ फटने के पहले ही सुबह चार बजे नमाज पढ़ने के साथ शुरू हो जाती थी नमाज के बाद वे हमारे नारियल के बाग जाया करते।
बाग घर से करीब चार मील दूर था। करीब दर्जन भर नारियल कंधे पर लिये पिताजी घर लौटते और उसके बाद ही उनका नाश्ता होता। पिताजी की यह दिनचर्या जीवन के छठे दशक के आखिर तक बनी रही।
मैंने अपनी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की सारी जिंदगी में पिताजी की बातों का अनुसरण करने की कोशिश की है। मैंने उन बुनियादी सत्यों को समझने का भरसक प्रयास किया है,
जिन्हें पिताजी ने मेरे सामने रखा और मुझे इस संतुष्टि का आभास हुआ कि ऐसी कोई दैवी शक्ति जरूर है जो हमें भ्रम, दुःखों, विषाद और असफलता से छुटकारा दिलाती है तथा सही रास्ता दिखाती है।
जब पिताजी ने लकड़ी की नौकाएँ बनाने का काम शुरू किया, उस समय मैं छह साल का था। ये नौकाएँ तीर्थयात्रियों को रामेश्वरम् से धनुषकोडि (सेथुक्काराई भी कहा जाता है) तक लाने-ले जाने के काम आती थीं
एक स्थानीय ठेकेदार अहमद जलालुद्दीन के साथ पिताजी समुद्र तट के पास नौकाएँ बनाने लगे। बाद में अहमद जलालुद्दीन की मेरी बड़ी बहन जोहरा के साथ शादी हो गई थी।
नौकाओं को आकार लेते देखते वक्त मैं काफी अच्छे तरीके से गौर करता था। पिताजी का कारोबार काफी अच्छा चल रहा था।
एक दिन सौ मील प्रति घंटे की रफ्तार से हवा चली और समुद्र में तूफान आ गया तूफान में सेथुक्काराई के कुछ लोग और हमारी नावें बह गईं।
उसीमें पामबान पुल भी टूट गया और यात्रियों से भरी ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गई। तब तक मैंने सिर्फ समुद्र की खूबसूरती को ही देखा था।
उसकी अपार एवं अनियंत्रित ऊर्जा ने मुझे हतप्रभ कर दिया। जब तक नाव की यह कहानी बेवक्त डूबी, उम्र में काफी फर्क होने के
बावजूद अहमद जलालुद्दीन मेरे अंतरंग मित्र बन गए। वह मुझसे करीब पंद्रह साल बड़े थे और मुझे 'आजाद' कहकर पुकारा करते थे। हम दोनों रोजाना शाम को दूर तक साथ घूमने जाया करते।
हम मसजिदवाली गली से निकलते और समुद्र के रेतीले तट पर चल पड़ते। मैं और जलालुद्दीन प्रायः आध्यात्मिक विषयों पर बातें करते।
एक प्रमुख तीर्थस्थल होने की वजह से रामेश्वरम् का यह वातावरण हमारी आध्यात्मिक चर्चाओं में और भी प्रेरक सिद्ध होता। रास्ते में हमारा पहला पड़ाव शिव मंदिर हुआ करता था।
इस मंदिर की हम उतनी ही श्रद्धा से परिक्रमा करते जितनी श्रद्धा से देश के किसी हिस्से से आया कोई भी तीर्थयात्री करता। और इस परिक्रमा के बाद हम अपने शरीर को बहुत ही ऊर्जावान महसूस करते।
जलालुद्दीन ईश्वर के बारे में ऐसी बातें किया करते जैसे ईश्वर के साथ उनकी कामकाजी भागीदारी हो। वह ईश्वर के समक्ष अपने सारे संदेह इस प्रकार रखते जैसे वह उनका निराकरण पूरी तरह कर देगा।
मैं जलालुद्दीन की ओर एकटक देखता रहता और फिर देखता मंदिर के चारों ओर जमा श्रद्धालुओं तीर्थयात्रियों की उस भीड़ को भी,
जो समुद्र में डुबकियाँ लगा रही होती और फिर पूरी धार्मिक रीतियों से पूजा-पाठ करती तथा उसी अज्ञात के प्रति अपने आदर भाव से प्रार्थना करती जिसे हम निराकार सर्वशक्तिमान मानते थे।
मुझे इसमें कभी संदेह नहीं रहा कि मंदिर में की गई प्रार्थना जहाँ, जिस तरह पहुँचती है ठीक उसी तरह हमारी मसजिद में पढ़ी गई नमाज भी वहीं जाकर पहुँचती है।
मुझे आश्चर्य सिर्फ तब होता जब जलालुद्दीन ईश्वर से विशेष तरह का जुड़ाव कायम कर लेने की बात कहते। पारिवारिक परिस्थितियों के कारण जलालुद्दीन की स्कूली शिक्षा कोई बहुत ज्यादा नहीं हुई थी।
यही एक कारण रहा, जिसकी वजह से जलालुद्दीन मुझे पढ़ाई के प्रति हमेशा उत्साहित करते रहते थे और मेरी सफलताओं से प्रसन्न होते थे।
पढ़ाई से वंचित रह जाने की हलकी सी भी पीड़ा की झलक मुझे जलालुद्दीन में कभी देखने को नहीं मिली। जिंदगी में उन्हें जो कुछ भी मिला वह उसके प्रति हमेशा कृतज्ञ रहे।
प्रसंगवश मुझे यहाँ यह भी उल्लेख कर देना चाहिए कि पूरे इलाके में सिर्फ जलालुद्दीन ही थे, जो अंग्रेजी में लिख सकते थे। जिसे भी जरूरत होती,
चाहे वह अर्जी हो या और कुछ जलालुद्दीन उसे अंग्रेजी में लिख देते। मेरे परिचितों में, चाहे मेरे परिवार में हो या आस-पड़ोस में, जलालुद्दीन के बराबर शिक्षा का स्तर
किसीका भी नहीं था और
न ही किसीको उनके बराबर बाहरी दुनिया के बारे में पता था। जलालुद्दीन मुझे हमेशा शिक्षित व्यक्तियों, वैज्ञानिक खोजों, समकालीन साहित्य और चिकित्सा विज्ञान की उपलब्धियों के बारे में बताते रहते थे।
वही थे जिन्होंने मुझे सीमित दायरे से बाहर निकालकर नई दुनिया का बोध कराया।
मेरे बाल्यकाल में पुस्तकें एक दुर्लभ वस्तु की तरह हुआ करती थीं। हमारे यहाँ स्थानीय स्तर पर एक पूर्व क्रांतिकारी या कहिए, उग्र राष्ट्रवादी एस.टी. आर. मानिकम का निजी पुस्तकालय था।
उन्होंने मुझे हमेशा पढ़ने के लिए उत्साहित किया। मैं अकसर उनके घर से पढ़ने के लिए किताबें ले आया करता था
दूसरे जिस व्यक्ति का मेरे बाल जीवन पर गहरा असर पड़ा, वह मेरे चचेरे भाई शम्सुद्दीन थे। वह रामेश्वरम् में अखबारों के एकमात्र वितरक थे।
अखबार रामेश्वरम् स्टेशन पर सुबह की ट्रेन से पहुँचते थे, जो पामबन से आती थी। इस अखबार एजेंसी को अकेले शम्सुद्दीन ही चलाते थे। रामेश्वरम् में अखबारों की जुमला एक हजार प्रतियाँ बिकती थीं।
इन अखबारों में स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित ताजा खबरें, ज्योतिष से जुड़े संदर्भ और मद्रास (अब चेन्नई) के सर्राफा बाजार के भाव प्रमुखता से होते थे।
महानगरीय दृष्टिकोण रखनेवाले कुछ थोड़े से पाठक हिटलर, महात्मा गांधी और जिन्ना के बारे में चर्चाएँ करते; जबकि ज्यादातर पाठकों में चर्चा का विषय सवर्ण हिंदुओं के रूढ़िवाद के खिलाफ पेरियार ई.वी.. रामास्वामी द्वारा चलाया जा रहा आंदोलन होता 'दिनमणि' अखबार की माँग सबसे ज्यादा होती थी।
चूँकि अखबार में जो कुछ भी छपा होता वह मेरी समझ से परे होता, इसलिए शम्सुद्दीन द्वारा ग्राहकों को अखबार बाँटने से पहले मैं सिर्फ अखबार में छपी तसवीरों पर नजर डालकर ही संतोष कर लेता था।
सन् 1939 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ा तब मैं आठ वर्ष का था तभी बाजार में इमली के बीजों की अचानक तेज माँग उठी,
जिसका कारण मुझे कभी समझ में नहीं आया। मैं इन बीजों को इकट्ठा करता और मसजिदवाली गली में एक परचून की दुकान पर बेच देता इससे मुझे एक आना रोज मिल जाता था।
विश्वयुद्ध की खबरें जलालुद्दीन मुझे बताते रहते थे, जिन्हें बाद में मैं 'दिनमणि' अखबार के शीर्षकों में ढूँढ़ने की कोशिश करता। विश्वयुद्ध का हमारे यहाँ जरा भी असर नहीं था।
लेकिन जल्दी ही भारत पर भी मित्र देशों की सेनाओं में शामिल होने का दबाव डाला गया और देश में एक तरह का आपातकाल घोषित कर दिया गया।
उसका पहला नतीजा इस रूप में सामने आया कि रामेश्वरम् स्टेशन पर गाड़ी का ठहरना बंद कर दिया गया। ऐसी स्थिति में अखबारों के बंडल रामेश्वरम् और
धनुषकोद्धि के बीच रामेश्वरम् रोड पर चलती ट्रेन से गिरा दिए जाते थे।
तब शम्सुद्दीन को ऐसे मददगार की तलाश हुई जो अखबारों के बंडल झेलने और गिरे हुए बंडलों को उठाने में उनका हाथ बँटा सके।
स्वाभाविक है, मैं ही मददगार बना। इस तरह शम्सुद्दीन से मुझे अपनी पहली तनख्वाह मिली। आधी शताब्दी गुजर जाने के बाद आज भी मैं अपने द्वारा कमाई पहली तनख्वाह पर गर्व करता हूँ।
हर बच्चा एक विशेष आर्थिक, सामाजिक और भावनात्मक परिवेश में कुछ वंशागत गुणों के साथ जन्म लेता है, फिर संस्कारों के अनुरूप उसे ढाला जाता है। मुझे अपने पिताजी से विरासत के रूप में ईमानदारी और आत्मानुशासन मिला तथा माँ से ईश्वर में विश्वास और करुणा का भाव।
यही गुण मेरे तीनों भाई-बहनों को भी विरासत में मिले। लेकिन मैंने जलालुद्दीन और शम्सुद्दीन के साथ अपना जो समय गुजारा, उसका मेरे बचपन में एक अद्वितीय योगदान रहा और इसीके रहते मेरे जीवन में सारे बदलाव आए।
स्कूली शिक्षा नहीं होने के बाद भी जलालुद्दीन एवं शम्सुद्दीन इतनी सहज बुद्धि के थे और मेरे अकथनीय संदेशों का यों झट से जवाब दे देते थे कि बचपन में मैं बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी सृजनात्मकता को उनके बीच रख सका।
बचपन में मेरे तीन पक्के दोस्त थे-रामानंद शास्त्री, अरविंदन और शिवप्रकाशन। ये तीनों ही ब्राह्मण परिवारों से थे। रामानंद शास्त्री तो रामेश्वरम् मंदिर के सबसे बड़े पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री का बेटा था।
अलग-अलग धर्म, पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई को लेकर हममें से किसी भी बच्चे ने कभी भी आपस में कोई भेदभाव महसूस नहीं किया।
आगे चलकर रामानंद शास्त्री तो अपने पिता के स्थान पर रामेश्वरम् मंदिर का पुजारी बना, अरविंदन ने तीर्थयात्रियों को घुमाने के लिए टेंपो चलाने का कारोबार कर लिया और शिवप्रकाशन दक्षिण रेलवे में खान-पान का ठेकेदार हो गया।
प्रतिवर्ष होनेवाले श्री सीता राम विवाह समारोह के दौरान हमारा परिवार विवाहस्थल तक भगवान् श्रीराम की मूर्तियाँ ले जाने के लिए विशेष प्रकार की नावों का बंदोबस्त किया करता था।
यह विवाहस्थल तालाब के बीचोबीच स्थित था और इसे 'रामतीर्थ' कहते थे। यह हमारे घर के पास ही था। मेरी माँ और दादी घर के बच्चों को सोते समय 'रामायण' के किस्से और पैगंबर मुहम्मद से जुड़ी घटनाएँ सुनाती थीं
जब मैं रामेश्वरम् के प्राइमरी स्कूल में पाँचवीं कक्षा में था तब एक दिन एक नए शिक्षक हमारी कक्षा में आए। मैं टोपी पहना करता था, जो मेरे मुसलमान होने का प्रतीक था। कक्षा में मैं हमेशा आगे की पंक्ति में जनेऊ पहने रामानंद शास्त्री के साथ बैठा करता था।
नए शिक्षक को एक हिंदू लड़के का मुसलमान लड़के के साथ बैठना अच्छा नहीं लगा। उन्होंने मुझे उठाकर पीछेवाली बेंच पर चले जाने को कहा। मुझे बहुत बुरा लगा। रामानंद शास्त्री को भी यह बहुत खला।
मुझे पीछे की पंक्ति में बैठाए जाते देख वह काफी उदास नजर आ रहा था। उसके चेहरे पर जो • रुआँसी के भाव थे, उनकी मुझपर गहरी छाप पड़ी ।
स्कूल की छुट्टी होने पर हम घर गए और सारी घटना अपने घरवालों को बताई। यह सुनकर लक्ष्मण शास्त्री ने उस शिक्षक की बुलाया और कहा कि उसे निर्दोष बच्चों के दिमाग में इस तरह सामाजिक असमानता एवं सांप्रदायिकता का विष नहीं घोलना चाहिए।
हम सब भी उस वक्त वहाँ मौजूद थे। लक्ष्मण शास्त्री ने उस शिक्षक से साफ-साफ कह दिया कि या तो वह क्षमा माँगे या फिर स्कूल छोड़कर यहाँ से चला जाए।
उस शिक्षक ने अपने किए व्यवहार पर न सिर्फ दुःख व्यक्त किया बल्कि लक्ष्मण शास्त्री के कड़े रुख एवं धर्मनिरपेक्षता में उनके विश्वास से उस नौजवान शिक्षक में अंततः बदलाव आ गया।
पूरे रामेश्वरम् में विभिन्न जातियों का जो छोटा सा समाज था, वह कई स्तरों में था। इस पृथक्करण के मामले में ये जातियाँ बहुत ही कठोर थीं। मेरे विज्ञान के शिक्षक शिव सुब्रह्मण्य अय्यर कट्टर सनातनी ब्राह्मण थे और उनकी पत्नी मोर रूढ़िवादी थीं।
लेकिन वे कुछ-कुछ रूढ़िवाद के खिलाफ हो चले थे। उन्होंने इन सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने के लिए अपनी तरफ से काफी कोशिशें कीं, ताकि विभिन्न वर्गों के लोग आपस में एक-दूसरे के साथ मिल सकें और जातीय असमानता खत्म हो।
वे मेरे साथ काफी समय बिताते थे और कहा करते-कलाम, मैं तुम्हें ऐसा बनाना चाहता हूँ कि तुम बड़े शहरों के लोगों के बीच एक उच्च शिक्षित व्यक्ति के रूप में पहचाने जाओगे।'
एक दिन उन्होंने मुझे खाने पर अपने घर बुलाया। उनकी पत्नी इस बात से बहुत ही परेशान एवं भयभीत थीं कि उनकी पवित्र और धर्मनिष्ठ रसोई में एक मुसलमान युवक को भोजन पर आमंत्रित किया गया है।
उन्होंने अपनी रसोई के भीतर मुझे खाना खिलाने से साफ इनकार कर दिया। शिव सुब्रह्मण्य अय्यर अपनी पत्नी के इस रुख से जरा भी विचलित नहीं हुए और न ही उन्हें क्रोध आया।
बल्कि उन्होंने खुद अपने हाथ से मुझे खाना परोसा और फिर बाहर आकर मेरे पास ही अपना खाना लेकर बैठ गए। उनकी पत्नी यह सब रसोई के दरवाजे के पीछे खड़ी देखती रहीं।
मुझे आश्चर्य हो रहा था कि क्या वे मेरे चावल खाने के तरीके, 'पानी पीने के ढंग और खाना खा चुकने के बाद उस स्थान को साफ करने के तरीके में कोई फर्क देख रही थीं।
जब मैं उनके घर से खाना खाने के बाद लौटने लगा तो अय्यर महोदय ने मुझे फिर अगले हफ्ते रात के खाने पर आने को कहा। मेरी, हिचकिचाहट को देखते हुए वे बोले, 'इसमें परेशान होने की जरूरत नहीं है।
एक • बार जब तुम व्यवस्था बदल डालने का फैसला कर लेते हो तो ऐसी समस्याएँ 'सामने आती ही हैं।'
अगले हफ्ते जब मैं शिव सुब्रह्मण्य अय्यर के घर रात्रिभोज पर गया तो उनकी पत्नी ही मुझे रसोई में ले गई और खुद अपने हाथों से खाना परोसा।
द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म हो चुका था और भारत की आजादी भी बहुत दूर नहीं थी। गांधीजी ने ऐलान किया-'भारतीय स्वयं अपने भारत का निर्माण करेंगे।'
पूरे देश में अप्रत्याशित उम्मीदें थीं। मैंने अपने पिताजी से रामेश्वरम् छोड़कर जिला मुख्यालय रामनाथपुरम् जाकर पढ़ाई करने की अनुमति माँगी।
उन्होंने सोचते हुए कहा, 'अबुल! तुम्हें आगे बढ़ने के लिए जाना होगा। तुम्हें अपनी लालसाएँ पूरी करने और आगे बढ़ने के लिए उस जगह चले जाना चाहिए जहाँ तुम्हारी जरूरतें पूरी हो सकती हैं।
हमारा प्यार तुम्हें बाँधेगा नहीं और न ही हमारी जरूरतें तुम्हें रोकेंगी।' मेरी हिचकिचाती हुई माँ को उन्होंने खलील जिब्रान का हवाला देते हुए कहा, 'तुम्हारे बच्चे तुम्हारे नहीं हैं।
वे तो खुद के लिए जीवन की लालसाओं के बेटे-बेटियाँ हैं। वे तुम्हारे जरिए आते हैं, लेकिन तुमसे नहीं आते। तुम उन्हें अपना प्यार दे सकते हो, लेकिन अपने विचार नहीं। उनके खुद के " अपने विचार होते हैं।'
पिताजी हम चारों भाइयों को मसजिद ले गए और पवित्र 'कुरान' से 'अल फातिहा पढ़कर प्रार्थना की। फिर पिताजी मुझे रामेश्वरम् स्टेशन पर छोड़ने आए और कहा, 'इस जगह तुम्हारा शरीर तो रह सकता है,
लेकिन तुम्हारा मन नहीं। तुम्हारे मन को तो कल के उस घर में रहने जाना है जहाँ हममें से कोई भी रामेश्वरम् से वहाँ नहीं जा सकता और न ही सपनों में देख सकता है। मेरे बच्चे, ईश्वर तुम्हें खुश रखें।'
शम्सुद्दीन और अहमद जलालुद्दीन मुझे रामनाथपुरम् के श्वार्ट्ज हाई स्कूल में दाखिल कराने और वहाँ मेरे रहने का बंदोबस्त करने के लिए मेरे साथ आए थे। किसी भी तरह मुझे यहाँ अच्छा नहीं लग रहा था।
रामनाथपुरम् कस्बा समृद्ध होते हुए भी बनावटीपन में जीता समाज था। इसकी आबादी करीब पचास हजार थी लेकिन रामेश्वरम् जैसी सुसंगति और सद्भाव यहाँ नहीं था। मुझे घर की बड़ी याद आती और
मैं रामेश्वरम् जाने का हर मौका तलाशता रहता। रामनाथपुरम् में पढ़ाई के अच्छे अवसर के बाद भी मैं अपनी माँ की बनाई दक्षिण भारतीय मिठाई 'पोली' की याद नहीं भुला पाता।
मेरी माँ 'पोली' की बारह तरह से मिठाइयाँ बना लेती थीं और हर किस्म की मिठाई की अपनी अलग सुगंध एवं स्वाद होता था।
घर की बहुत याद आने के बावजूद मैं नए माहौल में रहकर पिताजी के सपने को साकार करने के प्रति कटिबद्ध था; क्योंकि मेरी सफलता से पिताजी की बहुत बड़ी उम्मीदें जुड़ी थीं।
पिताजी मुझे कलक्टर बना देखना चाहते थे और मुझे लगता था कि पिताजी के सपने को साकार करना मेरा फर्ज है। हालाँकि परिवार, सुरक्षा और रामेश्वरम् की सारी सुख-सुविधाएँ मुझसे छूट गई थीं।
जलालुद्दीन मुझसे हमेशा सकारात्मक सोच की शक्ति की बात किया करते थे और जब भी मुझे घर की याद आती या मैं उदास होता तो मैं प्रायः उनकी कही बातों को मन में याद कर लेता।
उनके कहे अनुसार मैंने अपने मन के विचारों एवं मस्तिष्क को स्थिर रखने तथा लक्ष्य को पाने के लिए कठोर परिश्रम किया। मैं रामेश्वरम् नहीं लौटा बल्कि अपने घर से और दूर चलता चला गया।
Part 2
Credit @author & writer
यह भी देखें-